मेरा प्यार और राष्ट्रीय राजमार्ग - 3 - .

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Tuesday, December 26, 2017

मेरा प्यार और राष्ट्रीय राजमार्ग - 3

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मेरा प्यार और राष्ट्रीय राजमार्ग - 2 से आगे पढ़े। 
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मैं अपने गाँव कि यात्रा पर निकल गया , अगले दिन सुबह मैं अपने गाँव पहुँच गया , अब मेरा मन जल्द से जल्द मोना से मिलने का कर रहा था , मेरे गाँव से मोना का गाँव बाइक से लगभग एक घंटे लगते थे। मैं दोपहर के बाद निकल गया अपने अगले सफर पर। 

शाम के करीब चार - पांच बजे हम मोना के घर पर पहुंच गए , उस समय मोना घर पर नहीं थी। अजय घर पर था, हम उन्ही के पास बैठ बात करने लगा तब तक आंटी किसी को खिड़की से आवाज देने लगी अरे मोना को बोलो ऋषभ आया है। मोना गाँव में होने वाली दुर्गापूजा के विसर्जन में गयी थी जब उसने सुनी की हम आये है वो तुरंत ही घर आ गयी अब तक हम चाय - नास्ता कर चुके थे। मेरे मोबाइल का बैटरी लगभग खत्म हो गया था जिसके कारन हम पापा को भी नहीं बता पाए कि हम पहुंच गए है , उसी समय अजय के फ़ोन पर पापा का कॉल आया। पापा से बात करने के बाद मोना बोली चलो छत वही बात करेंगे हम लोग सभी छत पर चले गए। 

छत पर सभी लोग बात करने लगे पर हमलोगो से कुछ दुरी पर बैठी वो मुझे घूरे जा रही थी, बात मैं भी करना चाहता था लेकिन सभी के सामने कहने से डर रहा था पता नहीं सब क्या सोचेंगे। उससे मेरी नज़र बार - बार टकरा जा रही थी ,वो प्यार वाला गुस्सा दिखा रही थी। मेरे दिल ने कहा इससे पहले कि देर हो जाये बात कि पहल करो, क्या हुआ ज़ोया उधर अकेली क्यू बैठी हो, ज़ोया बोली कुछ नहीं बस आप लोग अपने में व्यस्त है तो मैं क्यू बिच में आऊ। .....  मैंने ज्यादा कुछ कहना ठीक नहीं समझा। 

शाम गहरी होने लगी थी ठण्ड भी थोड़ी सी थी मोना बोली चलो निचे चलते है  , सभी लोग निचे आ गए , मैं अजय और मोना तीनो कमरे में आ गए लेकिन ज़ोया कुर्सी ले के कमरे के ठीक सामने आँगन बैठ गयी। मगर ज़ोया ने नज़रे मिलाना बंद नहीं कि मैं भी नज़र सब से बच - बच कर बार - बार ज़ोया को देख रहा था। दोनों के होठ सिले थे लेकिन आँखे बात कर रही थी। मेरे दिमाग में कुछ समझ में नहीं आ रहा था क्या करू, इस मामले में अब तक में कच्चा था और कोई रिश्क भी नहीं लेना चाहता था। इसलिए मैं खामोस ही रहा मगर मन बैचेन हो रहा था। अगली दिन ज़ोया को उसके अंकल आंटी के साथ पटना जाना था। 
रात के दस बज गए थे मोना खाना लगाने लगी।  खाना खा कर सोने के मैं कमरे में जा रहा था उसी समय अँधेरे बरामदे में ज़ोया मिली , ज़ोया : - गुड नाईट बोली और अचानक से उसकी आवाज़ रुक सी गयी
मैं भी गुड नाईट बोला और उसके कंधे पर हाथ रख कर पूछा क्या हुआ ?
ज़ोया : कुछ नहीं,  लेकिन उसकी कुछ नहीं भी बहुत कुछ कह रही थी। अँधेरे में किसी कि आहट हुई और मैं अपने कमरे में चला गया। 

गाँव में सुबह सभी जल्दी उठ जाते है लेकिन मै अभी भी सो रहा था , मोना हम को जगाने आई बोली अजय बुला रहा है। मैं तुरंत उठ के गया देखा ज़ोया पटना जाने कि तैयारी कर रही थी।  एक बार फिर ज़ोया से बिछरने का समय आ गया था। 

अजय : ऋषभ तुम जब आये हो तो चलो नाना जी से मिल कर आ जाते है। 

मैं कुछ सोचा और ठीक है चलिए तैयार हो जाइए। 

हम और अजय भी संग तैयार हो गए जाने के लिए , मैंने अपनी गाड़ी निकाली , ज़ोया सब को बस से जाना था बस का टाइम भी गया था अजय बोलै तुम बाइक लेके बस स्टॉप तक चलो हम वही आते है।  मैं एक अच्छे सारथि कि तरह उसके बात का पालन किया और बस स्टॉप पर इंतज़ार करने लगा।  पटना जाए वाली बस आ गयी सभी लोग उस में सवार हो गए और बस चल पड़ी , हम भी अपना बाइक स्टार्ट किया और बस के पीछे निकल पड़ा। कुछ दूरतक रास्ता एक ही था उस मैं चाह रहा था कि ज्यादे से ज्यादे  मैं ज़ोया को देख सकू। शायद ज़ोया भी वही चाह रही थी क्यूकि ज़ोया बार बार बाद के पीछे देख रही थी। पैसेंजर लेने एक जगह बाद रुकी मैंने भी बाइक रोकी और झट से बगल के दुकान से डेरी मिल्क कि चॉकलेट लेके अजय को दिया कि बस में दे दीजिये। कुछ दूर चलने के बाद बस आँख से ओझल हो गयी मगर मन के भीतर ज़ोया के लिए एक अलग अनुभूति करा गयी जिसे मैं पुरे रास्ते सोचता रहा। पुरे दिन घूमने के बाद हम लोग वापस मोना के गाँव आने लगे वैसे तो मई बाइक बहुत स्पीड चलाता हूँ लेकिन उस समय में स्पीड कम कर दी  और अजय से बोला 

मैं : अजय ज़ोया मुझे अच्छी लगने लगी है। 
अजय : क्या , लेकिन तुम तो नेहा से प्यार करते हो ?
मैं : नहीं सच नहीं है और मैं बोलै एक बार बात करो , अजय कुछ नहीं बोला। 

शाम होने वाली थी हम घर पहुंच गए मोना पानी ले के आई और नाना - नानी सभी का हाल - चाल पूछने लगी। हम लोगो के बिच में बातचीत चल ही रही थी कि अजय बोला : मोना , जानती हो ऋषभ को ज़ोया से बात करना चाहत है। 
मोना : क्या जी , कुछ बात है क्या मैं चुप रहा। 
मोना : ठीक है देखते है आज तो नहीं लेकिन हम बोल देंगे आप से बात कर लेगी।  ज़ोया के पास अपना मोबाइल नहीं था डेरा के मोबाइल पर ही कॉल करना पड़ता था। 

रात का खाना खा कर सभी सो गए , लेकिन मेरे आंख से नींद गायब थी बार - बार पिछली रात को दृश्य याद आ रहा था , उसको याद करते करते पता नहीं कब नींद आ गयी। 

सुबह उठकर मैं तैयार हो गया अपने गाँव जाने के लिए मेरा छुट्टी भी खत्म होने वाला था।  वहाँ से विदा हो अपने गाँव आ गया लेकिन मेरा मन नहीं लग रहा था , घर पर एक - दो दिन रुकने के बाद में रांची चला गया। इस बिच मोना से प्रत्येक दिन फोन पर बात होती रहती थी हर एक दिन मैं बोलता तो फिर ज़ोया से कब बात करा रही हो। 
मोना : यार मैं बोल दि हूँ और तुम्हारा नंबर भी दे दी हूँ  , वो खुद तुम को समय देख कर कॉल कर लेगी।
मैं : बोलै ठीक है......... 


(c) दुर्गानाथ झा  



       

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